दिल की दुनिया देख कर क्यूँ रंग-ए-दुनिया देखते
देखने वालो नहीं हम देख कर क्या देखते
जल्वा-गाह-ए-दिल में आ जाते वो बे-पर्दा अगर
हम भी रंग-ए-बे-खु़दी हम रंग-ए-मूसा देखते
चौदहवीं का चाँद होता है दरख़्शाँ जिस तरह
यूँ तसव्वुर में किसी को जगमगाता देखते
ग़र्क़ हो जाते मोहब्बत में मोहब्बत-आश्ना
साहिल-ओ-दरिया से भी कर के किनारा देखते
जज़्ब हो कर रह गए ख़ुद ही निगाह-ए-बर्क़ में
क्यूँकर आँखों से नशेमन अपना जलता देखते
मैं कभी जल्वा हूँ तेरा तू कभी परतव मिरा
उम्र गुज़री जा रही है ये तमाशा देखते
होते वो जल्वा-नुमा गुल-पैकर-ओ-गुल-पैरहन
हम उन्हें 'मख़मूर' फ़िरदौस-ए-तमाशा देखते
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ग़ज़ल
दिल की दुनिया देख कर क्यूँ रंग-ए-दुनिया देखते
मख़मूर जालंधरी