दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है
हम ने देखा है तू ऐ शोख़ जहाँ रहता है
कोई दिन घर से न निकले है अगर वो ख़ुर्शीद
मुंतज़िर शाम तलक एक जहाँ रहता है
झाड़ दामन के तईं मार के ठोकर निकले
कहीं रोके से भी वो सर्व-ए-रवाँ रहता है
गाहे माहे ऐ मह-ए-ईद इधर भी तो गुज़र
रोज़ ओ शब बज़्म में तेरा ही बयाँ रहता है
बावजूद-ए-कि मुझे रब्त-ए-दिली है उस से
ये न पूछा कभू 'ईमान' कहाँ रहता है
ग़ज़ल
दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान