दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
मैं क्या बला हूँ रात बड़ा डर लगा मुझे
आगे भी इश्क़ में हुईं रुस्वाइयाँ मगर
अब के वफ़ा का ज़ख़्म जबीं पर लगा मुझे
ऐ दिल वो मेहरबाँ है यूँही बद-गुमाँ न हो
मारा था उस ने ग़ैर को पत्थर लगा मुझे
हर सू तिरे वजूद की ख़ुशबू थी ख़ेमा-ज़न
वो दिन कि अपना घर भी तिरा घर लगा मुझे
हँस कर न टाल जा कि ये उम्मीद की किरन
वो तीर है कि सीने के अंदर लगा मुझे
तारीकी-ए-हयात का अंदाज़ा कर कि आज
दाग़-ए-शिकस्त महर-ए-मुनव्वर लगा मुझे
साँचे तो थे ग़ज़ल के सिवा भी मगर 'ज़फ़र'
क्या जाने क्यूँ ये ज़र्फ़ हसीन-तर लगा मुझे
ग़ज़ल
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
ज़फ़र इक़बाल