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दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे | शाही शायरी
dil ka ye dasht arsa-e-mahshar laga mujhe

ग़ज़ल

दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे

ज़फ़र इक़बाल

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दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
मैं क्या बला हूँ रात बड़ा डर लगा मुझे

आगे भी इश्क़ में हुईं रुस्वाइयाँ मगर
अब के वफ़ा का ज़ख़्म जबीं पर लगा मुझे

ऐ दिल वो मेहरबाँ है यूँही बद-गुमाँ न हो
मारा था उस ने ग़ैर को पत्थर लगा मुझे

हर सू तिरे वजूद की ख़ुशबू थी ख़ेमा-ज़न
वो दिन कि अपना घर भी तिरा घर लगा मुझे

हँस कर न टाल जा कि ये उम्मीद की किरन
वो तीर है कि सीने के अंदर लगा मुझे

तारीकी-ए-हयात का अंदाज़ा कर कि आज
दाग़-ए-शिकस्त महर-ए-मुनव्वर लगा मुझे

साँचे तो थे ग़ज़ल के सिवा भी मगर 'ज़फ़र'
क्या जाने क्यूँ ये ज़र्फ़ हसीन-तर लगा मुझे