दिल का मौसम ज़र्द हो तो कुछ भला लगता नहीं
कोई मंज़र कोई चेहरा ख़ुशनुमा लगता नहीं
धुँदले धुँदले अजनबी से लोग आते हैं नज़र
मुद्दतों का आश्ना भी आश्ना लगता नहीं
सख़्त मुश्किल हो गया है इम्तियाज़-ए-ख़ूब-ओ-ज़िश्त
फूल सी पोशाक में बद-ख़ू बुरा लगता नहीं
लूट कर आते नहीं क्यूँ आशियानों की तरफ़
भोले-भाले पंछियों का कुछ पता लगता नहीं
यासियत जब फैल जाए मतला-ए-अफ़्कार पर
रास्ता कोई भी अपना रास्ता लगता नहीं
इल्तिजा की टहनियाँ होती नहीं हैं क्यूँ हरी
क्यूँ समर मेरी दुआ में ऐ ख़ुदा लगता नहीं
ग़ज़ल
दिल का मौसम ज़र्द हो तो कुछ भला लगता नहीं
ज़मीर अज़हर