दिल का ग़म से ग़म का नम से राब्ता बनता गया
धीरे धीरे बारिशों का सिलसिला बनता गया
दर्द-ओ-ग़म सहने की आदत इस क़दर पुख़्ता हुई
हारना आख़िर हमारा मश्ग़ला बनता गया
एक इक कर के बहुत दुख साथ मेरे हो लिए
मरहला-दर-मरहला इक क़ाफ़िला बनता गया
ज़ब्त का दामन जो छूटा हाथ से मेरे तो फिर
मेरा चेहरा कर्ब का इक आइना बनता गया
हर तरफ़ फैला हुआ था बे-यक़ीनी का धुआँ
ख़ुद-बख़ुद 'फ़ारूक़' फिर इक रास्ता बनता गया
ग़ज़ल
दिल का ग़म से ग़म का नम से राब्ता बनता गया
ज़ुबैर फ़ारूक़