दिल जो सूरत-गर-ए-मअ'नी का सनम-ख़ाना बने
आँख जिस शय प पड़े जल्वा-ए-जानाना बने
उतने ही हो गए हम मंज़िल-ए-इरफ़ाँ के क़रीब
जिस क़दर रस्म-ओ-रह-ए-दहर से बेगाना बने
ता-दर-ए-यार पहुँचता है वो ख़ुद-रफ़्ता-ए-शौक़
अपनी हस्ती से जो इस राह में बेगाना बने
ज़र्फ़-ए-मय टूट के भी होने न पाए बेकार
हो शिकस्ता कोई शीशा तो वो पैमाना बने
सई-ए-नाकाम से मैं हाथ उठाऊँगा न 'बर्क़'
मेरी बिगड़ी हुई तक़दीर बने या न बने
ग़ज़ल
दिल जो सूरत-गर-ए-मअ'नी का सनम-ख़ाना बने
बर्क़ देहलवी