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दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर | शाही शायरी
dil jal ke rah gae zaqan-e-rashk-e-mah par

ग़ज़ल

दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर

तअशशुक़ लखनवी

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दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
इस क़ाफ़िला को प्यास ने मारा है चाह पर

गेसू को नाज़ है दिल-ए-रौशन की चाह पर
परवाना ये चराग़ है मार-ए-सियाह पर

नींद उड़ गई गिराँ है ये शब रश्क-ए-माह पर
बिजली न क्यूँ फ़लक से गिरे मेरी आह पर

है याद ख़ुफ़्तगान-ए-ज़मीं का जो ख़त्त-ए-सब्ज़
भूले से मैं क़दम नहीं रखता गियाह पर

लुटता है ख़ाना-ए-दिल-ए-आशिक़ बचाइए
बिगड़ी हुई है फ़ौज-ए-मिज़ा किस गुनाह पर

तासीर का है ख़ौफ़ उन्हें ऐन शौक़ में
है दिल पे हाथ कान हैं आवाज़-ए-आह पर

महशर बपा है बंद हैं कुश्तों के रास्ते
क़द बाढ़ पर है बाढ़ है तेग़-ए-निगाह पर

क्या आदमी की ख़ाक को रौंदूँ मैं रहम-दिल
रोता है पाएमाली-ए-मर्दुम-गियाह पर

कहते हो किस के क़ल्ब में उठता है शब को दर्द
रोता है दिल मिरा मिरे हाल-ए-तबाह पर

आख़िर तलाश-ए-गोर हुई दिल को इश्क़ में
बरसों तबाह हो के अब आया है राह पर

दिल के मुआमले में न हो दख़्ल ग़ैर को
लेना जो हो तो लीजिए अपनी निगाह पर

ऊपर की साँस लेने का आज़ार हो गया
जिस की नज़र पड़ी तिरी तिरछी निगाह पर

बख़िया जराहत-ए-दिल-ए-नाज़ुक-मिज़ाज का
मौक़ूफ़ है हुज़ूर के तार-ए-निगाह पर