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दिल है मुश्ताक़ जुदा आँख तलबगार जुदा | शाही शायरी
dil hai mushtaq juda aankh talabgar juda

ग़ज़ल

दिल है मुश्ताक़ जुदा आँख तलबगार जुदा

बेख़ुद देहलवी

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दिल है मुश्ताक़ जुदा आँख तलबगार जुदा
ख़्वाहिश-ए-वस्ल जुदा हसरत-ए-दीदार जुदा

ज़ाहिदों से न बनी हश्र के दिन भी या-रब
वो खड़े हैं तिरी रहमत के तलबगार जुदा

जी जलाने को सताने को मिटाने को मुझे
वो जुदा ग़ैर जुदा चर्ख़-ए-सितम-गार जुदा

बिजलियाँ हज़रत-ए-मूसा पे गिरीं दो इक बार
शोला-ए-शौक़ जुदा शोला-ए-दीदार जुदा

हो गए वो सहर-ए-वस्ल ये कह कर रुख़्सत
तुझ से करता है मुझे चर्ख़-ए-सितमगार जुदा

क़त्ल करते ही मुझे जल्वा-नुमाई भी हुई
दर पे हंगामा अलग है पस-ए-दीवार जुदा

ज़ाहिदों की तिरी रहमत पे चढ़ाई है अलग
टोलियाँ बाँध कर आए हैं गुनहगार जुदा

वज़्अ का पास भी है 'बेख़ुद'-ए-मय-ख़्वार ज़रूर
काग बोतल से न कीजिए सर-ए-बाज़ार जुदा