दिल ग़म-ए-इश्क़ के इज़हार से कतराता है
आह ग़म-ख़्वार कि ग़म-ख़्वार से कतराता है
ये समझ कर के जफ़ाओं में मज़ा पाता है
वो सितमगर मिरे आज़ार से कतराता है
हो गया उस पे भी कुछ उस की शिकायत का असर
अब मसीहा भी जो बीमार से कतराता है
हो रहा है मुझे तकमील-ए-मोहब्बत का गुमाँ
इश्क़ अब हुस्न के दीदार से कतराता है
दिल-ए-पर्वर्दा-ए-ग़म ख़ुशियों से यूँ जाता है
'सोज़' इक बाल जूँ अग़्यार से कतराता है
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ग़ज़ल
दिल ग़म-ए-इश्क़ के इज़हार से कतराता है
अब्दुल मलिक सोज़