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दिल-ए-ज़िंदा ख़ुद रहनुमा हो गया | शाही शायरी
dil-e-zinda KHud rahnuma ho gaya

ग़ज़ल

दिल-ए-ज़िंदा ख़ुद रहनुमा हो गया

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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दिल-ए-ज़िंदा ख़ुद रहनुमा हो गया
ये क़िबला ही क़िबला-नुमा हो गया

हुआ रंग-ए-दुनिया में क्यूँ शेफ़्ता
तुझे बुल-हवस हाए क्या हो गया

ये पर्दा ही था पर्दापोश-ए-नज़र
हिजाब उठ गया ख़ुद-नुमा हो गया

यही ख़ुद-शनासी ख़ुदाई हुई
ख़ुदी मिट गई जब ख़ुदा हो गया

अनल-हक़ हुअल-हक़ जो आया नज़र
ये शोरीदा-सर ख़ुद-नुमा हो गया

तार्रुज़ हुअल-हक़ जो आया नज़र
तअश्शुक़ में सब फ़ैसला हो गया

तजल्ली हुई जिस को तौहीद की
वो क़ैद-ए-दुई से रिहा हो गया

ये क्या चीज़ था 'साक़ी' हेच-कस
तिरे फ़ज़्ल से क्या से क्या हो गया