दिल-ए-सोज़ान-ए-आशिक़ मख़्ज़न-ए-रंग-ए-वफ़ा होगा
वो हिस्सा क़द्र के क़ाबिल है जितना जल गया होगा
चले थे दर्द को सुन कर थमे ये कह के रस्ते में
न जाना अब मुनासिब है वो कब का मर गया होगा
ये इक बोसे पे इतनी बहस ये ज़ेबा नहीं तुम को
नहीं है याद मुझ को ख़ैर अच्छा ले लिया होगा
छिड़ी थीं हुस्न की बहसें इधर चाँद और इधर तुम थे
किसी को देख कर बे-पर्दा कोई छुप गया होगा
अँधेरे घर की कुछ पर्वा नहीं है तीरा-बख़्तों को
तुम आओ क़ब्र पर रौशन चराग़-ए-नक़श-ए-पा होगा
मुरव्वत की तो सूरत भी नहीं देखी उन आँखों ने
अगर धमकाऊँ मरने पर तो कह देगा कि क्या होगा
तमाशा जांकनी का क्यूँ न देखा देख तो लेते
रगें जितनी खिची थीं दम भी उतना ही खिचा होगा
तुम आओ देखने वाला नहीं कोई सर-ए-मदफ़न
चराग़-ए-क़ब्र अफ़्सुर्दा था कब का बुझ गया होगा
अभी तो आग सीने में कहीं कम है कहीं ज़ाइद
अगर मिल जाएँगे आपस में सब छाले तो क्या होगा
चमक उट्ठी जो मेरे ज़ख़्म-ए-दिल में क्या क़यामत है
फ़लक पर चाँद निकला होगा या कोई हिंसा होगा
हमीं से पूछ लो कैसे हो तुम और हुस्न कैसा है
अगर आईने को दम भर न देखोगे तो क्या होगा
ग़म-ए-फ़ुर्क़त का क्या शिकवा क़यामत आने वाली है
ख़ुदा के सामने आख़िर तो इक दिन सामना होगा
यही 'जावेद' बेहतर है कि अब तौबा से कर तौबा
वही छुप कर पिएगा मय जो तुम सा पारसा होगा
ग़ज़ल
दिल-ए-सोज़ान-ए-आशिक़ मख़्ज़न-ए-रंग-ए-वफ़ा होगा
जावेद लख़नवी