दिल-ए-पुर-ख़ूँ को यादों से उलझता छोड़ देते हैं 
हम इस वहशी को जंगल में अकेला छोड़ देते हैं 
न जाने कब कोई भीगे हुए मंज़र में आ निकले 
दयार-ए-अश्क में पलकें झपकना छोड़ देते हैं 
उसे भी देखना है अपना मेआ'र-ए-पज़ीराई 
चला आए तो क्या कहना तक़ाज़ा छोड़ देते हैं 
ग़मों की भीड़ जब भी क़र्या-ए-जाँ की तरफ़ आए 
बिलकते ख़्वाब ख़ामोशी से रस्ता छोड़ देते हैं 
किसी की याद से दिल को मुनव्वर तक नहीं करना 
इसी का नाम दुनिया है तो दुनिया छोड़ देते हैं 
हमें ख़ुशबू की सूरत दश्त-ए-हस्ती से गुज़रना था 
अचानक यूँ हुआ लेकिन ये क़िस्सा छोड़ देते हैं 
ज़रा से अश्क में छुप कर उन आँखों में नहीं रहना 
चलो 'असलम' हमी कू-ए-तमन्ना छोड़ देते हैं
        ग़ज़ल
दिल-ए-पुर-ख़ूँ को यादों से उलझता छोड़ देते हैं
असलम कोलसरी

