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दिल-ए-महजूर को तस्कीन का सामाँ न मिला | शाही शायरी
dil-e-mahjur ko taskin ka saman na mila

ग़ज़ल

दिल-ए-महजूर को तस्कीन का सामाँ न मिला

अख़्तर शीरानी

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दिल-ए-महजूर को तस्कीन का सामाँ न मिला
शहर-ए-जानाँ में हमें मस्कन-ए-जानाँ न मिला

कूचा-गर्दी में कटीं शौक़ की कितनी रातें
फिर भी उस शम-ए-तमन्ना का शबिस्ताँ न मिला

पूछते मंज़िल-ए-सलमा की ख़बर हम जिस से
वादी-ए-नज्द में ऐसा कोई इंसाँ न मिला

यूँ तो हर राहगुज़र पर थे सितारे रक़्साँ
जिस की हसरत थी मगर वो मह-ए-ताबाँ न मिला

लाला-ओ-गुल थे बहुत आम चमन में लेकिन
ढूँडते थे जिसे वो सर्व-ए-ख़िरामाँ न मिला

जिस के पर्दों से मचलती हो वही निकहत-ए-शौक़
बे-ख़ुदी की क़सम ऐसा कोई ऐवाँ न मिला

बख़्त-ए-बे-दार कहाँ जल्वा-ए-दिल-दार कहाँ
ख़्वाब में भी हमें वो गुंचा-ए-ख़ंदाँ न मिला

बेकसी तिश्ना-लबी दर्द-ए-हलावत-तलबी
चाँदनी-रात में भी चश्मा-ए-हैवाँ न मिला

यूँ तो हर दर पे ही कहते नज़र आए दामन
खींचते नाज़ से जिस को वही दामाँ न मिला

किस के दर पर न किए सज्दे निगाहों ने मगर
हाए तक़दीर वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ न मिला

कौन से बाम को रह रह के न देखा लेकिन
निगह-ए-शौक़ को वो माह-ए-ख़िरामाँ न मिला

दर-ए-जानाँ पे फ़िदा करते दिल-ओ-जाँ 'अख़्तर'
वाए बर-हाल-ए-दिल-ओ-जाँ दर-ए-जानाँ न मिला