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दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ | शाही शायरी
dil-e-KHilqat-e-KHuda ko sanama jala na chandan

ग़ज़ल

दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ

वलीउल्लाह मुहिब

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दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ
कि फ़लक के पार पहुँचे तफ़-ए-आह-ए-दर्द-मंदाँ

कहें क्या कि देखते हैं तुझे ग़ैर साथ ख़ंदाँ
रहे होंट हो चबाते ब-जिगर-फ़शुर्दा-दंदाँ

वहीं झड़-गुलों के तूदे बंधें गुलबनों के नीचे
कभू सुब्ह-दम चमन में जो वो ग़ुंचा-लब हो ख़ंदाँ

कहो क्या बरार-सोहबत मिरी उस की हो अज़ीज़ाँ
दिल-ए-नाज़ुक अपना शीशा दिल-ए-संग उस का संदाँ

न बचेगा सैद उन से कोई आहु-ए-हरम तक
जो रहे शिकार-अफ़्गन यही अम्बरीं-कमंदाँ

कभू रंग से हिना के सर-ए-दस्त-ओ-पा निगारीं
न सिवा-ए-ख़ून-ए-आशिक़ करें ये निगार-बंदाँ

न हो ग़ैर साथ हर-दम मुतबस्सिम ऐ परी-वश
न नमक-फ़िशाँ हो दिल के सर-ए-रीश मुस्तमिन्दाँ

किए शाना रीश को याँ अबस आए शैख़ जी तुम
कि ये जम-ए-बज़्म-ए-रिंदाँ है फ़रीक़-ए-रीश-ख़ंदाँ

नहीं फ़ाल लब पे उस के ये है मेहर ख़ामुशी की
वही समझे है ये नुक्ता कि जो है बड़ा सुख़न-दाँ

कहीं सर्व से मुशाबह तेरे क़द को पस्त-फ़ितरत
ये है गोश-ज़द हमारे सुख़न-ए-नज़र-बुलंदाँ

सभी महव-ए-ख़ुद-नुमाई ब-मिसाल-ए-आइना हैं
ये ख़ुदाई से निराला है गिरोह-ए-ख़ुद-पसंदाँ

तिरी वस्फ़ का कमर के न बँधा किसी से मज़मूँ
रहे ख़्वाब में अदम तक जो कई ख़याल बंदाँ

'मुहिब' इस अदा के सदक़े कि उठाए मार ठोकर
सर-ए-पा-ए-नाज़नीं से वो सर-ए-नियाज़-मंदाँ