दिल-ए-आशुफ़्ता पे इल्ज़ाम कई याद आए
जब तिरा ज़िक्र छिड़ा नाम कई याद आए
तुझ से छुट कर भी गुज़रनी थी सो गुज़री लेकिन
लम्हा लम्हा सहर ओ शाम कई याद आए
हाए नौ-उम्र अदीबों का ये अंदाज़-ए-बयाँ
अपने मक्तूब तिरे नाम कई याद आए
आज तक मिल न सका अपनी तबाही का सुराग़
यूँ तिरे नामा ओ पैग़ाम कई याद आए
कुछ न था याद ब-जुज़-कार-ए-मोहब्बत इक उम्र
वो जो बिगड़ा है तो अब काम कई याद आए
ख़ुद जो लब-तिश्ना थे जब तक तो कोई याद न था
प्यास बुझते ही तही-जाम कई याद आए
ग़ज़ल
दिल-ए-आशुफ़्ता पे इल्ज़ाम कई याद आए
जमीलुद्दीन आली