दिल दुखा था मिरा ऐसा कि दिखाया न गया
दर्द इतना था कि ख़ुद उन से बढ़ाया न गया
बे-ख़ुद-ए-इश्क़ से फिर होश में आया न गया
सर जो सज्दे में झुकाया तो उठाया न गया
राज़ उस पर्दा-नशीं का कभी पाया न गया
महरम-ए-राज़ से भी राज़ बताया न गया
आफ़रीं लज़्ज़त-ए-नज़्ज़ारा ख़ुशा आलिम-ए-कैफ़
दिल का आना था कि फिर होश में आया न गया
लब पे अपने न कभी हर्फ़-ए-तमन्ना आया
राज़ दिल का मगर आँखों से छुपाया न गया
इश्क़ से दिल ने किसी तरह न फ़ुर्सत पाई
ये वो शोला है कि दहका तो बुझाया न गया
जल्वा यूँ आम किया उस ने कि सब ने देखा
पर्दा यूँ उस ने गिराया कि उठाया न गया
ग़ज़ल
दिल दुखा था मिरा ऐसा कि दिखाया न गया
सय्यद बशीर हुसैन बशीर