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दिलबराँ का अपस कूँ दास न कर | शाही शायरी
dil-baran ka apas kun das na kar

ग़ज़ल

दिलबराँ का अपस कूँ दास न कर

क़ाज़ी महमूद बेहरी

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दिलबराँ का अपस कूँ दास न कर
दास होता तो दिल उदास न कर

गर अलक पर है लक तो चक सूँ झटक
चक की उम्मीद अलक की आस न कर

लट कूँ लट-पट हो रुख़ पे रीज निकू
सूत कांती को फिर कपास न कर

बुल-हवस बुल्बुलाँ नमन हर बन
देख अपस दुख की इल्तिमास न कर

या'नी यक ठार यक यक़ीं सू उछ
बाज यक दूसरा क़यास न कर

गर जो दिल जल धुंवाँ असास में नीं
तू कुबूदी अबस लिबास न कर

तोड़ अपस का हिजाब ऐ 'बहरी'
मुल्क में मन के उस मवास न कर