दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ
हिज्र फिर हिज्र है विसाल कहाँ
इश्क़ है नाम इंतिहाओं का
इस समुंदर में ए'तिदाल कहाँ
ऐसा नश्शा तो ज़हर में भी न था
ऐ ग़म-ए-दिल तिरी मिसाल कहाँ
हम को भी अपनी पाएमाली का
है मगर इस क़दर मलाल कहाँ
मैं नई दोस्ती के मोड़ पे था
आ गया है तिरा ख़याल कहाँ
दिल कि ख़ुश-फ़हम था सो है वर्ना
तेरे मिलने का एहतिमाल कहाँ
वस्ल ओ हिज्राँ हैं और दुनियाएँ
इन ज़मानों में माह-ओ-साल कहाँ
तुझ को देखा तो लोग हैराँ हैं
आ गया शहर में ग़ज़ाल कहाँ
तुझ पे लिक्खी तो सज गई है ग़ज़ल
आ मिला ख़्वाब से ख़याल कहाँ
अब तो शह मात हो रही है 'फ़राज़'
अब बचाव की कोई चाल कहाँ
ग़ज़ल
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ
अहमद फ़राज़