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दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से | शाही शायरी
dil bache kyunkar buton ki chashm-e-shoKH-o-shang se

ग़ज़ल

दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से
अपना घर तो सूझता है सैकड़ों फ़रसंग से

एक भी निकले न मेरी सी फ़ुग़ान-ए-दिल-ख़राश
गरचे ख़ूँ टपके गुलू-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-आहंग से

छुप के बैठेगा कहाँ तू हम से ऐ रंगीं-नवा
होगा तू जिस रंग में मिल जाएँगे उस रंग से

बल बे-बारीकी कि गोया हर तिरा तार-ए-सुख़न
जंतरी में खिंच के निकला है दहान-ए-तंग से

ऐ तग़ाफ़ुल-केश जल्दी आ कि तू वाक़िफ़ नहीं
इस दिल-ए-बेताब ओ जान-ए-मुज़्तरिब के ढंग से

जोश-ए-गिर्या से रही बरसात बरसों पर कभी
उस की तेग़-ए-तेज़ आलूदा न देखी ज़ंग से

मेरे गिर्ये के असर से हो गए पत्थर भी आब
झड़ते हैं जा-ए-शरर पानी के क़तरे संग से

पहले ये नीयत वज़ू की है नमाज़-ए-इश्क़ में
दिल से कह दीजे कि धोवे हाथ नाम ओ नंग से

'ज़ौक़' ज़ेबा है जो हो रीश-ए-सफ़ेद-ए-शैख़ पर
वसमा आब-ए-बंग से मेहंदी मय-ए-गुल-रंग से