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दिखावे के लिए एलान-ए-फ़ैज़-ए-आम होता है | शाही शायरी
dikhawe ke liye elan-e-faiz-e-am hota hai

ग़ज़ल

दिखावे के लिए एलान-ए-फ़ैज़-ए-आम होता है

जुर्म मुहम्मदाबादी

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दिखावे के लिए एलान-ए-फ़ैज़-ए-आम होता है
मगर इक ख़ास ही हल्क़ा में दौर-ए-जाम होता है

मोअर्रिख़ यूँ जगह देता नहीं तारीख़-ए-आलम में
बड़ी क़ुर्बानियों के बा'द पैदा नाम होता है

उसी को सोचना पड़ती हैं तदबीरें रिहाई की
जो ताइर जुर्म-ए-आज़ादी में ज़ेर-ए-दाम होता है

हबाब-ए-बहर की सूरत उभरने की ज़रूरत क्या
नुमूद-ए-बे-महल का जब बुरा अंजाम होता है

कोई सरशार हो जाए कोई इक बूँद को तरसे
इन्हीं बातों से साक़ी मय-कदा बदनाम होता है

कहीं सब्ज़े को रौंदा जा रहा है लहलहाने पर
कहीं फूलों का रंग-ओ-बू पे क़त्ल-ए-आम होता है

ज़बाँ क्यूँ खोलते हो जुर्म ये दुनिया है उल्फ़त की
इशारों ही इशारों में यहाँ सब काम होता है