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दिखा ऐ नाख़ुन-ए-ग़म लुत्फ़-ए-बाहम ऐसे सामाँ पर | शाही शायरी
dikha ai naKHun-e-gham lutf-e-baham aise saman par

ग़ज़ल

दिखा ऐ नाख़ुन-ए-ग़म लुत्फ़-ए-बाहम ऐसे सामाँ पर

मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता

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दिखा ऐ नाख़ुन-ए-ग़म लुत्फ़-ए-बाहम ऐसे सामाँ पर
गरेबाँ का हो मुँह दामन पे दामन का गरेबाँ पर

वो सोए हो के बे-पर्दा यहाँ किस किस तमन्ना से
मगर सदक़े हवा के रात भर रोए दरख़्शाँ पर

तुम्हारे दस्त-ए-नाज़ुक ने जो कीं अठखेलियाँ उस से
उतर आया गरेबाँ मुस्कुरा कर पा-ए-दामाँ पर

सिखाया चश्म को क्या आतिश-ए-ग़म ने दम-ए-गिर्या
हर इक आँसू बना है आबला दामान-ए-मिज़्गाँ पर

जिगर में किस मज़े से चुटकियाँ लेता है छुप-छुप कर
गुमान-ए-शाहिद-ए-पहलू है मुझ को दर्द-ए-पिन्हाँ पर

मैं वो शैदा-ए-गेसू हूँ कि अक्सर मौसम-ए-गुल में
मिरा पा-ए-नज़र पड़ता है ज़ंजीर-ए-गुलिस्ताँ पर

वो बुलबुल हूँ ग़ज़ल-ख़्वान ऐ 'शगुफ़्ता' बाग़-ए-आलम में
गराँ होता नहीं मेरा सुख़न तब-ए-सुख़न-दाँ पर