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दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है | शाही शायरी
diwaron se mil kar rona achchha lagta hai

ग़ज़ल

दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है

क़ैसर-उल जाफ़री

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दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है

कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है

आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है

इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है

दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है

किस को पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है