दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया
दिल बुझने लगा था सो नज़ारे से उठाया
बे-जान पड़ा देखता रहता था मैं उस को
इक रोज़ मुझे उस ने इशारे से उठाया
इक लहर मुझे खींच के ले आई भँवर में
वो लहर जिसे मैं ने किनारे से उठाया
घर में कहीं गुंजाइश-ए-दर ही नहीं रक्खी
बुनियाद को किस शक के सहारे से उठाया
इक मैं ही था ऐ जिंस-ए-मोहब्बत तुझे अर्ज़ां
और मैं ने भी अब हाथ ख़सारे से उठाया
ग़ज़ल
दीवार पे रक्खा तो सितारे से उठाया
अंजुम सलीमी