दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
सब कुछ कहा और रात से कुछ भी न कहा मैं
कुछ और भी मस्कन थे मिरे दिल के अलावा
लगता है कहीं और भी मिस्मार हुआ मैं
इस दुख को तो मैं ठीक बता भी नहीं पाता
मैं ख़ुद को मयस्सर था मगर मिल न सका मैं
जागा हूँ मगर ख़्वाब की दहशत नहीं जाती
क्या देखता हूँ यार तुझे भूल गया मैं
सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
सो ढलता रहा जलता रहा चलता रहा मैं
इक इश्क़-क़बीला मिरी मिट्टी में छुपा था
इक शख़्स था लेकिन कोई इक शख़्स न था मैं
इक घूँट की वक़अत मिरे पिंदार से कम थी
इस बात से वाक़िफ़ मिरा मश्कीज़ा है या मैं
इक जिस्म में रहते हुए हम दूर बहुत थे
आँखें न खुलीं मुझ पे न आँखों पे खुला मैं
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
क्या होगा जिसे ढूँडता था तेरे सिवा मैं
ग़ज़ल
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
सऊद उस्मानी