EN اردو
दीवार-ओ-दर का नाम था कोई मकाँ न था | शाही शायरी
diwar-o-dar ka nam tha koi makan na tha

ग़ज़ल

दीवार-ओ-दर का नाम था कोई मकाँ न था

बदनाम नज़र

;

दीवार-ओ-दर का नाम था कोई मकाँ न था
मैं जिस ज़मीन पर था वहाँ आसमाँ न था

मैं दुश्मनों की तरह रहा ख़ुद से दूर क्यूँ
अपने सिवा तो कोई मिरे दरमियाँ न था

क़दमों में तपती रेत थी चारों तरफ़ थी आग
और ज़िंदगी के सर पर कोई साएबाँ न था

ढूँडी थी माँ की गोद में जा-ए-अमाँ मगर
बेचैनियों को मेरी वहाँ भी अमाँ न था

मेरे सफ़र में भीड़ जो थी हम-क़दम मिरी
यादों की थी बरात कोई कारवाँ न था

अपने हिसार-ए-जिस्म में कब रह सका 'नज़र'
देखा गया था उस को जहाँ वो वहाँ न था