दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वर्ना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे
ऐ देखने वालो मुझे हँस हँस के न देखो
तुम को भी मोहब्बत कहीं मुझ सा न बना दे
मैं ढूँढ रहा हूँ मिरी वो शम्अ कहाँ है
जो बज़्म की हर चीज़ को परवाना बना दे
आख़िर कोई सूरत भी तो हो ख़ाना-ए-दिल की
काबा नहीं बनता है तो बुत-ख़ाना बना दे
'बहज़ाद' हर इक गाम पे इक सज्दा-ए-मस्ती
हर ज़र्रे को संग-ए-दर-ए-जानाना बना दे
ग़ज़ल
दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
बहज़ाद लखनवी