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दीन से दूर, न मज़हब से अलग बैठा हूँ | शाही शायरी
din se dur, na mazhab se alag baiTha hun

ग़ज़ल

दीन से दूर, न मज़हब से अलग बैठा हूँ

पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर

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दीन से दूर, न मज़हब से अलग बैठा हूँ
तेरी दहलीज़ पे हूँ, सब से अलग बैठा हूँ

ढंग की बात कहे कोई, तो बोलूँ मैं भी
मतलबी हूँ, किसी मतलब से अलग बैठा हूँ

बज़्म-ए-अहबाब में हासिल न हुआ चैन मुझे
मुतमइन दिल है बहुत, जब से अलग बैठा हूँ

ग़ैर से दूर, मगर उस की निगाहों के क़रीं
महफ़िल-ए-यार में इस ढब से अलग बैठा हूँ

यही मस्लक है मिरा, और यही मेरा मक़ाम
आज तक ख़्वाहिश-ए-मंसब से अलग बैठा हूँ

उम्र करता हूँ बसर गोशा-ए-तन्हाई में
जब से वो रूठ गए, तब से अलग बैठा हूँ

मेरा अंदाज़ 'नसीर' अहल-ए-जहाँ से है जुदा
सब में शामिल हूँ, मगर सब से अलग बैठा हूँ