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दीदा-ए-अश्क-बार है अपना | शाही शायरी
dida-e-ashk-bar hai apna

ग़ज़ल

दीदा-ए-अश्क-बार है अपना

मीराजी

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दीदा-ए-अश्क-बार है अपना
और दिल बे-क़रार है अपना

रश्क-ए-सहरा है घर की वीरानी
यही रंग-ए-बहार है अपना

चश्म-ए-गिर्यां से चाक-ए-दामाँ से
हाल सब आश्कार है अपना

हाए-हू में हर एक खोया है
कौन याँ ग़म-गुसार है अपना

सिर्फ़ वो एक सब के हैं मुख़्तार
उन पे क्या इख़्तियार है अपना

बज़्म से उन की जब से निकला है
दिल ग़रीब-उद-दयार है अपना

उन को अपना बना के छोड़ेंगे
बख़्त अगर साज़गार है अपना

पास तो क्या है अपने फिर भी मगर
उस पे सब कुछ निसार है अपना

हम को हस्ती रक़ीब की मंज़ूर
फूल के साथ ख़ार है अपना

है यही रस्म-ए-मय-कदा शायद
नश्शा उन का ख़ुमार है अपना

जीत के ख़्वाब देखते जाओ
ये दिल-ए-बद-क़िमार है अपना

क्या ग़लत सोचते हैं 'मीरा-जी'
शेर कहना शिआ'र है अपना