ध्यान दस्तक पे लगा रहता है
और दरवाज़ा खुला रहता है
किसी मलबे से नहीं पुर होता
मेरे अंदर जो ख़ला रहता है
खींचता है वो लकीरें क्या क्या
और फिर उन में घिरा रहता है
हम को ख़ामोश न जानो साहब
अंदर इक शोर बपा रहता है
मुझ को दे देता है गहरे पानी
ख़ुद जज़ीरों पे बसा रहता है
मेरी तन्हाई की पगडंडी पर
मेरे हम-राह ख़ुदा रहता है
ख़ाक भी रहती नहीं इंसाँ की
नाम पत्थर पे खुदा रहता है
रंग-ओ-बू भरते हैं इस का पानी
मज़्बले पर जो पड़ा रहता है
क़ुमक़ुमे रहते हैं रौशन 'बेताब'
दिल ही कम-बख़्त बुझा रहता है

ग़ज़ल
ध्यान दस्तक पे लगा रहता है
प्रीतपाल सिंह बेताब