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धूप रख दी थी मुक़द्दर ने सिरहाने मेरे | शाही शायरी
dhup rakh di thi muqaddar ne sirhane mere

ग़ज़ल

धूप रख दी थी मुक़द्दर ने सिरहाने मेरे

बशीर फ़ारूक़ी

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धूप रख दी थी मुक़द्दर ने सिरहाने मेरे
उम्र-भर आग में जलते रहे शाने मेरे

मैं तिरे नाम का आमिल हूँ वो अब जान गए
हादसे अब नहीं ढूँढेंगे ठिकाने मेरे

चाँद सी उन की वो ख़ुश-रंग क़बा वो दस्तार
उन की दरवेशी पे क़ुर्बान ख़ज़ाने मेरे

मौज-ए-रंग आई कुछ इस तौर कि दिल झूम उठा
होश गुम कर दिए सरमस्त हिना ने मेरे

फिर कोई लम्स मिरे जिस्म में शो'ले भर दे
फिर से यूँ हो कि पलट आएँ ज़माने मेरे

जा तुझे छोड़ दिया ऐ ग़म-ए-दौराँ मैं ने
वर्ना ख़ाली नहीं जाते हैं निशाने मेरे

ऐसा लगता था कि लौट आए हैं गुज़रे हुए दिन
मिल गए थे मुझे कुछ दोस्त पुराने मेरे

ज़िंदगी देख ली मैं ने तिरी दुनिया कि जहाँ
वक़्त ने छीन लिए ख़्वाब सुहाने मेरे

अब मैं साहिल पे नहीं मैं हूँ तह-ए-आब-ए-रवाँ
शहर-दर-शहर हैं होंटों पे फ़साने मेरे

गिर पड़ा सैल-ए-हवादिस मिरे क़दमों पे 'बशीर'
हाथ थामे जो बुज़ुर्गों की दुआ ने मेरे