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धूप निकली कभी बादल से ढकी रहती है | शाही शायरी
dhup nikli kabhi baadal se Dhaki rahti hai

ग़ज़ल

धूप निकली कभी बादल से ढकी रहती है

ज़फर इमाम

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धूप निकली कभी बादल से ढकी रहती है
रात दिन अपनी ही आँखों में जगी रहती है

देखते जाइए मिलने का ये अंदाज़ भी एक
होंट पे थोड़ी मुरव्वत की हँसी रहती है

क्या समुंदर को भी ख़तरा है कि इस में कोई
कुलबुलाती हुई बेचैन नदी रहती है

इक नज़र देखती जाएँगी हमारी आँखें
बंद दिल में कोई खिड़की भी खुली रहती है

साफ़ जज़्बों के हवाले से तो ग़म हैं लेकिन
एक लम्हे की ख़ुशी एक सदी रहती है

देख लेते हैं अंधेरे में भी रस्ता अपना
शम्अ एहसास के मानिंद जली रहती है