धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
अब कहाँ आएगा वो लौट के आने वाला
रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने
किसी पागल की तरह नक़्श मिटाने वाला
सब्ज़ शाख़ें कभी ऐसे तो नहीं चीख़ती हैं
कौन आया है परिंदों को डराने वाला
आरिज़-ए-शाम की सुर्ख़ी ने किया फ़ाश उसे
पर्दा-ए-अब्र में था आग लगाने वाला
सफ़र-ए-शब का तक़ाज़ा है मिरे साथ रहो
दश्त पुर-हौल है तूफ़ान है आने वाला
मुझ को दर-पर्दा सुनाता रहा क़िस्सा अपना
अगले वक़्तों की हिकायात सुनाने वाला
शबनमी घास घने फूल लरज़ती किरनें
कौन आया है ख़ज़ानों को लुटाने वाला
अब तो आराम करें सोचती आँखें मेरी
रात का आख़िरी तारा भी है जाने वाला
ग़ज़ल
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
वज़ीर आग़ा