धूप हो गए साए जल गए शजर जैसे
जम गई फ़ज़ाओं में अब के दोपहर जैसे
ज़ीस्त के ख़राबे में इक सियाह घर दिल का
और दिल में याद उस की रौशनी का दर जैसे
कैसे कैसे हंगामा घेरे रखते थे दिन रात
लग गई निगाहों को अपनी ही नज़र जैसे
या तो आने से पहले घर का पूछते अहवाल
आ गए तो अब कीजे हो गुज़र-बसर जैसे
ऐसे तकता रहता हूँ उस गली के लोगों को
ले के आएगा कोई मेरी भी ख़बर जैसे
मुद्दतों मैं गुज़रा था उस के शहर से लेकिन
सब मकान लगते थे अब भी उस के घर जैसे
नक़्श-गाह-ए-हस्ती में देखी अपनी भी तस्वीर
एक काग़ज़-ए-सादा आँसुओं से तर जैसे
चाहती है अब वहशत दूर तक बयाबानी
काटने को आते हैं घर के बाम-ओ-दर जैसे
मुझ से क्या सहे जाते उन की बज़्म के आदाब
अश्क माँगते थे वो अश्क भी गुहर जैसे
मैं भी कितना सादा हूँ रहगुज़र पे बैठा हूँ
रोक लेगा वो पाँव मुझ को देख कर जैसे
मेरी ख़्वाहिशें 'अंजुम' जैसे नाचती परियाँ
मेरा सारा मुस्तक़बिल ख़्वाब का नगर जैसे
ग़ज़ल
धूप हो गए साए जल गए शजर जैसे
अनवर अंजुम