ढूँढता हक़ को दर-ब-दर है तू
वाए अपने से बे-ख़बर है तू
शान-ए-हक़ आश्कार है तन से
मूजिद-ए-कुल्ल-ए-ख़ैर-ओ-शर है तू
एक में क्या वजूद-ए-जुमला-ज़ुहूर
कुल में ख़ुद आप बा-असर है तू
क़ुदरत-ए-कामिला को ग़ौर तो कर
बहर-ए-यकताई का गुहर है तू
मीट अपनी ख़ुदी ख़ुदा को पा
नफ़अ' हासिल हो क्या अगर है तू
मुक़्तदिर आप हर सबब का है
इस लिए हो गया बशर है तू
ख़ैर-ओ-शर के हिजाब में कब तक
ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र का सहर है तू
तेरी ही शान-ए-कुल हुवैदा है
बंदा कहता है क्यूँ किधर है तू
आप हर शय में जल्वा-फ़रमा हैं
बे-ख़बर क्या है बा-ख़बर है तू
मुझ पे इल्ज़ाम आ नहीं सकता
हर तरह से इधर उधर है तू
कोई कुछ क़ल्ब क्या करे तुझ को
बे-ग़ुल-ओ-ग़श वो साफ़ ज़र है तू
कह रहा है हमेशा इन्नी अना
जुमला आमा का राहबर है तू
जो है मंज़ूर हो रहा वही
किस नतीजे का मुंतज़र है तू
बिल-यक़ीं हक़ की शान है तेरी
मुख़्तसर ये है मुख़्तसर है तू
नाम तेरा ख़ुदा-नुमा है हिजाब
दीदा-ए-दीद का बसर है तू
कोई पाता नहीं तुझे 'मरकज़'
दू-ब-दू आप जल्वा-गर है तू

ग़ज़ल
ढूँढता हक़ को दर-ब-दर है तू
यासीन अली ख़ाँ मरकज़