धुएँ की ओट से बाहर भी आ गया होता
हमारे साथ अगर रिश्ता-ए-हवा होता
उसे भी शो'लगी-ए-रब्त की शिकायत थी
सुलगती आँख की दर्ज़ों में और क्या होता
जहाँ न पेड़ उगे थे न आग ही बरसी
वहाँ हमारे लिए कौन सा ख़ुदा होता
मैं एहतिजाज से बाहर भी सोचता शायद
शब-ए-फ़रार अगर कोई दर खुला होता
तड़प नहीं न सही ख़ैर-मक़्दमी के लिए
तिरा तपाक न होता तिरा गिला होता
ग़ज़ल
धुएँ की ओट से बाहर भी आ गया होता
वाजिद क़ुरैशी