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धुएँ की ओट से बाहर भी आ गया होता | शाही शायरी
dhuen ki oT se bahar bhi aa gaya hota

ग़ज़ल

धुएँ की ओट से बाहर भी आ गया होता

वाजिद क़ुरैशी

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धुएँ की ओट से बाहर भी आ गया होता
हमारे साथ अगर रिश्ता-ए-हवा होता

उसे भी शो'लगी-ए-रब्त की शिकायत थी
सुलगती आँख की दर्ज़ों में और क्या होता

जहाँ न पेड़ उगे थे न आग ही बरसी
वहाँ हमारे लिए कौन सा ख़ुदा होता

मैं एहतिजाज से बाहर भी सोचता शायद
शब-ए-फ़रार अगर कोई दर खुला होता

तड़प नहीं न सही ख़ैर-मक़्दमी के लिए
तिरा तपाक न होता तिरा गिला होता