धीरे धीरे ढलते सूरज का सफ़र मेरा भी है
शाम बतलाती है मुझ को एक घर मेरा भी है
जिस नदी का तू किनारा है उसी का मैं भी हूँ
तेरे हिस्से में जो है वो ही भँवर मेरा भी है
एक पगडंडी चली जंगल में बस ये सोच कर
दश्त के उस पार शायद एक घर मेरा भी है
फूटते ही एक अंकुर ने दरख़्तों से कहा
आसमाँ इक चाहिए मुझ को कि सर मेरा भी है
आज बेदारी मुझे शब भर ये समझाती रही
इक ज़रा सा हक़ तुम्हारे ख़्वाबों पर मेरा भी है
मेरे अश्कों में छुपी थी स्वाती की इक बूँद भी
इस समुंदर में कहीं पर इक गुहर मेरा भी है
शाख़ पर शब की लगे इस चाँद में है धूप जो
वो मिरी आँखों की है सो वो समर मेरा भी है
तू जहाँ पर ख़ाक उड़ाने जा रहा है ऐ जुनूँ
हाँ उन्हीं वीरानियों में इक खंडर मेरा भी है
जान जाते हैं पता 'आतिश' धुएँ से सब मिरा
सोचता रहता हूँ क्या कोई मफ़र मेरा भी है
ग़ज़ल
धीरे धीरे ढलते सूरज का सफ़र मेरा भी है
स्वप्निल तिवारी