देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त
छिड़ गया जब कि कहीं बैठ के अफ़साना-ए-दोस्त
आज उठे जाते हैं दरबाँ की जफ़ा से लेकिन
ज़िंदगी भर कहीं छुटता है दर-ए-ख़ाना-ए-दोस्त
हिज्र में हालत-ए-दिल की हैं वो आँखें निगराँ
देखी थी जिन से कभी रौनक-ए-काशाना-ए-दोस्त
राहबर शौक़-ए-दिली सर पे अजल दिल बेताब
बे-ख़बर यूँ मैं चला हूँ तरफ़-ए-ख़ाना-ए-दोस्त
आज क्यूँ हद से सिवा दिल को ख़ुशी है 'महशर'
क्या बुलाए हुए जाते हो सू-ए-ख़ाना-ए-दोस्त
ग़ज़ल
देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त
महशर काज़िम हुसैन लखनवी