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देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त | शाही शायरी
der tak uTh na saka wan se wo diwana-e-dost

ग़ज़ल

देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त

महशर काज़िम हुसैन लखनवी

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देर तक उठ न सका वाँ से वो दीवाना-ए-दोस्त
छिड़ गया जब कि कहीं बैठ के अफ़साना-ए-दोस्त

आज उठे जाते हैं दरबाँ की जफ़ा से लेकिन
ज़िंदगी भर कहीं छुटता है दर-ए-ख़ाना-ए-दोस्त

हिज्र में हालत-ए-दिल की हैं वो आँखें निगराँ
देखी थी जिन से कभी रौनक-ए-काशाना-ए-दोस्त

राहबर शौक़-ए-दिली सर पे अजल दिल बेताब
बे-ख़बर यूँ मैं चला हूँ तरफ़-ए-ख़ाना-ए-दोस्त

आज क्यूँ हद से सिवा दिल को ख़ुशी है 'महशर'
क्या बुलाए हुए जाते हो सू-ए-ख़ाना-ए-दोस्त