देखूँ तो कहाँ तक वो तलत्तुफ़ नहीं करता
आरे से अगर चीरे तो मैं उफ़ नहीं करता
तुम देते हो तकलीफ़ मुझे होती है राहत
सच जानिए मैं इस में तकल्लुफ़ नहीं करता
सब बातें उन्हीं की हैं ये सच बोलियो क़ासिद
कुछ अपनी तरफ़ से तो तसर्रुफ़ नहीं करता
सौ ख़ौफ़ की हो जाए मगर रिन्द-ए-नज़रबाज़
दिल जल्वागह-ए-लानशफ़-ओ-शुफ़ नहीं करता
शोख़ी से किसी तरह से चैन उस को नहीं है
आता है मगर आ के तवक़्क़ुफ़ नहीं करता
उस शोख़-ए-सितमगर से पड़ा है मुझे पाला
जो क़त्ल किए पर भी तअस्सुफ़ नहीं करता
जो कुछ है अना में वो टपकता है अना से
कुछ आप से मैं ज़िक्र-ए-तसव्वुफ़ नहीं करता
तस्कीन हो क्या वादे से माशूक़ है आख़िर
हर चंद सुना है कि तख़ल्लुफ़ नहीं करता
क्या हाल तुम्हारा है हमें भी तो बताओ
बे-वजह कोई 'शेफ़्ता' उफ़ उफ़ नहीं करता
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ग़ज़ल
देखूँ तो कहाँ तक वो तलत्तुफ़ नहीं करता
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता