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देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम | शाही शायरी
dekhte hain raqs mein din raat paimane ko hum

ग़ज़ल

देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम

क़मर जलालवी

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देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
साक़िया रास आ गए हैं तेरे मय-ख़ाने को हम

ले के अपने साथ इक ख़ामोश दीवाने को हम
जा रहे हैं हज़रत-ए-नासेह को समझाने को हम

याद रक्खेंगे तुम्हारी बज़्म में आने को हम
बैठने के वास्ते अग़्यार उठ जाने को हम

हुस्न मजबूर-ए-सितम है इश्क़ मजबूर-ए-वफ़ा
शम्अ को समझाएँ या समझाएँ परवाने को हम

रख के तिनके डर रहे हैं क्या कहेगा बाग़बाँ
देखते हैं आशियाँ की शाख़ झुक जाने को हम

उलझनें तूल-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त की आगे आ गईं
जब कभी बैठे किसी की ज़ुल्फ़ सुलझाने को हम

रास्ते में रात को मुढभेड़ साक़ी कुछ न पूछ
मुड़ रहे थे शैख़-जी मस्जिद को बुत-ख़ाने को हम

शैख़-जी होता है अपना काम अपने हाथ से
अपनी मस्जिद को सँभालें आप बुत-ख़ाने को हम

दो घड़ी के वास्ते तकलीफ़ ग़ैरों को न दे
ख़ुद ही बैठे हैं तिरी महफ़िल से उठ जाने को हम

आप क़ातिल से मसीहा बन गए अच्छा हुआ
वर्ना अपनी ज़िंदगी समझे थे मर जाने को हम

सुन के शिकवा हश्र में कहते हो शरमाते नहीं
तुम सितम करते फिरो दुनिया पे शरमाने को हम

ऐ 'क़मर' डर तू ये है अग़्यार देखेंगे उन्हें
चाँदनी शब में बुला लाएँ बुला लाने को हम