देखो तो किस अदा से रुख़ पर हैं डाली ज़ुल्फ़ें
जूँ मार डसती हैं दिल दिलबर की काली ज़ुल्फ़ें
चाहे हैं जिस न तिस को बाँधें गिरह में अपनी
दिल लेने को बला हैं ये पेच वाली ज़ुल्फ़ें
मिस्ल-ए-सलासिल इस में उक़दे हज़ार-हा हैं
टुक पेच-ओ-ताब से मैं देखीं न ख़ाली ज़ुल्फ़ें
मार-सियह जुदा कब रहता है गंज-ए-ज़र से
होती नहीं हैं उस के रुख़ से निराली ज़ुल्फ़ें
थी रात जो यकायक दिन देखने लगे सब
जब 'आफ़्ताब' उस ने रुख़ से उठा ली ज़ुल्फ़ें
ग़ज़ल
देखो तो किस अदा से रुख़ पर हैं डाली ज़ुल्फ़ें
आफ़ताब शाह आलम सानी