देखना उस की तजल्ली का जिसे मंज़ूर है
संग-रेज़ा भी नज़र में उस की कोह-ए-तूर है
हम से हम-चश्मी अनल-हक़ को कहाँ मक़्दूर है
अश्क हर यक-दार मिज़्गाँ पर मिरे मंसूर है
नहनो-अक़रब की नहीं है रम्ज़ से तू आश्ना
वर्ना वो नज़दीक है तू आप उस से दूर है
हिज्र की शब को अगर काटे तो फिर है रोज़-ए-वस्ल
नीश के पर्दे में देखा नोश भी मस्तूर है
क्या हुआ वाइज़ करे है शोर जूँ तब्ल-ए-तही
वो सर-ए-बे-मग़ज़ गोया कांसा-ए-तम्बूर है
आज हमें और ही नज़र आता है कुछ सोहबत का रंग
बज़्म है मख़मूर और साक़ी नशे में चूर है
रोज़ ओ शब रहता है तेरी याद में आशिक़ का दिल
गो मुक़स्सिर है तिरी ख़िदमत से गो म'अज़ूर है
आरज़ू है रात अँधेरी में कि आवे माह-रू
जिस के आगे रौशनाई शम्अ की बे-नूर है
ख़ाकसारों को कभू लाता नहीं ख़ातिर में वो
हुस्न की दौलत पर अपने इस क़दर मग़रूर है
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है इस का तबीब
जो नहीं इस मरज़ का तालिब सदा रंजूर है
अब तलक 'हातिम' से तो वाक़िफ़ नहीं अफ़्सोस यार
शायरी के फ़न में वो आफ़ाक़ में मशहूर है
ग़ज़ल
देखना उस की तजल्ली का जिसे मंज़ूर है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम