देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का
बुलबुल ओ परवाना करना दिल के तईं
काम है तुझ चेहरा-ए-गुल-नार का
सुब्ह तेरा दर्स पाया था सनम
शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का
माह के सीने उपर ऐ शम्अ-रू
दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का
दिल कूँ देता है हमारे पेच-ओ-ताब
पेच तेरे तुर्रा-ए-तर्रार का
जो सुन्या तेरे दहन सूँ यक बचन
भेद पाया नुस्ख़ा-ए-असरार का
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
आरसी के हाथ सूँ डरता है ख़त
चोर कूँ है ख़ौफ़ चौकीदार का
सर-कशी आतिश-मिज़ाजी है सबब
नासेहों को गर्मी-ए-बाज़ार का
ऐ 'वली' क्यूँ सुन सके नासेह की बात
जो दिवाना है परी-रुख़्सार का
ग़ज़ल
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
वली मोहम्मद वली