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देखें महशर में उन से क्या ठहरे | शाही शायरी
dekhen mahshar mein un se kya Thahre

ग़ज़ल

देखें महशर में उन से क्या ठहरे

आरज़ू लखनवी

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देखें महशर में उन से क्या ठहरे
थे वही बुत वही ख़ुदा ठहरे

ठहरे उस दर पे यूँ तो क्या ठहरे
बन के ज़ंजीर-ए-बे-सदा ठहरे

साँस ठहरे तो दम ज़रा ठहरे
तेज़ आँधी में शम्अ' क्या ठहरे

ज़िंदगानी है इक नफ़स का शुमार
बे-हवा ये चराग़ क्या ठहरे

जिस को तुम ला-दवा बताते थे
तुम्हीं उस दर्द की दवा ठहरे

इश्क़ का जुर्म सहल काम नहीं
कि हर इक लाएक़-ए-सज़ा ठहरे

बीम-ओ-उम्मीद की कशाकश में
इक दो-राहे पे जैसे आ ठहरे

रोती आँखें झलक न देख सकीं
बहते ज़ख़्मों पे क्या दवा ठहरे

'आरज़ू' वो हमें नसीब कहाँ
कान तक जा के जो सदा ठहरे