EN اردو
देख ओ क़ातिल बसर करते हैं किस मुश्किल से हम | शाही शायरी
dekh o qatil basar karte hain kis mushkil se hum

ग़ज़ल

देख ओ क़ातिल बसर करते हैं किस मुश्किल से हम

नसीम देहलवी

;

देख ओ क़ातिल बसर करते हैं किस मुश्किल से हम
चारा-गर से दर्द नालाँ दर्द से दिल दिल से हम

हाए क्या बे-ख़ुद किया है ग़फ़लत-ए-उम्मीद ने
हाल-ए-दिल कहते हैं अपना फिर उसी क़ातिल से हम

रश्क आदा ने किए रौशन बदन में उस्तुख़्वाँ
शम-ए-महफ़िल हो के उठ्ठे आप की महफ़िल से हम

इस को कहते हैं वफ़ादारी कि बा'द अज़ क़त्ल भी
दाग़-ए-ख़ूँ हो कर न छूटे दामन-ए-क़ातिल से हम

चश्म-ए-रौशन से नज़र आते हैं जल्वे रूह के
हुस्न-ए-लैला देखते हैं पर्दा-ए-महमिल से हम

ख़ाली अज़ एहसाँ नहीं ये भी कि वक़्त-ए-इज़्तिराब
ख़ुश तो हो जाते हैं तेरे वादा-ए-बातिल से हम

आओ आपस में समझ लें ग़ैर काहे को सुने
तुम कहो दिल से हमारे कुछ तुम्हारे दिल से हम

सुन के रो देते हैं अक्सर सूरत-ए-ज़ख्म-ए-जिगर
आप शरमाते हैं अपने ख़ंदा-ए-बातिल से हम

रश्क है हसरत पे उस की दिल में आता है यही
अपने क़ालिब को बदल लें क़ालिब-ए-बिस्मिल से हम

सीना-ओ-दिल में हुजूम-ए-दाग़-ए-हसरत है 'नसीम'
फूल चुन लेते हैं अपने गुलशन-ए-हासिल से हम