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देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़ | शाही शायरी
dekh dil ko mere o kafir-e-be-pir na toD

ग़ज़ल

देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़

बहादुर शाह ज़फ़र

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देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़
घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़

ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा
ऐ जुनूँ देख मिरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़

देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे
इस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़

ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शम्अ का सर काटे है
रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़

अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़अ वो शोख़
था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़

रक़्स-ए-बिस्मिल का तमाशा मुझे दिखला कोई दम
दस्त ओ पा मार के दम तू तह-ए-शमशीर न तोड़

सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह
खींच कर देख मिरे सीने से तू तीर न तोड़