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दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा | शाही शायरी
dayar-e-jaan pe musallat ajab zamana raha

ग़ज़ल

दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा

अदीब सुहैल

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दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा
कि दिल में दर्द लबों पर रवाँ तराना रहा

किसी पे बर्क़ गिरी शाख़-ए-जाँ सुलग उट्ठी
किसी पे संग चले सर मिरा निशाना रहा

क़दम क़दम पे मिली गरचे सरसर-ए-ख़ूँ-रेज़
हुजूम-ए-गुल उसी अंदाज़ से रवाना रहा

अदू-ए-दोस्त कभी मुझ को मो'तबर न हुआ
अज़ल से अपना ये मेआ'र-ए-दोस्ताना रहा

जो क़दर-ए-फ़न का तअ'य्युन करो तो ध्यान रहे
इसी सबब से अदू मेरा इक ज़माना रहा

जो बात कहनी हुई हम ने बरमला कह दी
'सुहैल' शिकवा किसी से न ग़ाएबाना रहा