दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा
कि दिल में दर्द लबों पर रवाँ तराना रहा
किसी पे बर्क़ गिरी शाख़-ए-जाँ सुलग उट्ठी
किसी पे संग चले सर मिरा निशाना रहा
क़दम क़दम पे मिली गरचे सरसर-ए-ख़ूँ-रेज़
हुजूम-ए-गुल उसी अंदाज़ से रवाना रहा
अदू-ए-दोस्त कभी मुझ को मो'तबर न हुआ
अज़ल से अपना ये मेआ'र-ए-दोस्ताना रहा
जो क़दर-ए-फ़न का तअ'य्युन करो तो ध्यान रहे
इसी सबब से अदू मेरा इक ज़माना रहा
जो बात कहनी हुई हम ने बरमला कह दी
'सुहैल' शिकवा किसी से न ग़ाएबाना रहा
ग़ज़ल
दयार-ए-जाँ पे मुसल्लत अजब ज़माना रहा
अदीब सुहैल