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दस्तूर मोहब्बत का सिखाया नहीं जाता | शाही शायरी
dastur mohabbat ka sikhaya nahin jata

ग़ज़ल

दस्तूर मोहब्बत का सिखाया नहीं जाता

पुरनम इलाहाबादी

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दस्तूर मोहब्बत का सिखाया नहीं जाता
ये ऐसा सबक़ है जो पढ़ाया नहीं जाता

कमसिन हैं वो ऐसे उन्हें ज़ालिम कहूँ कैसे
मासूम पे इल्ज़ाम लगाया नहीं जाता

आईना दिखाया तो कहा आईना-रुख़ ने
आईने को आईना दिखाया नहीं जाता

क्या छेड़ है आँचल से गुलिस्ताँ में सबा की
उन से रुख़-ए-रौशन को छुपाया नहीं जाता

हैरत है कि मय-ख़ाने में जाता नहीं ज़ाहिद
जन्नत में मुसलमान से जाया नहीं जाता

अब मौत ही ले जाए तो ले जाए यहाँ से
कूचे से तिरे हम से तो जाया नहीं जाता

इस दर्जा पशेमाँ मिरा क़ातिल है कि उस से
महशर में मिरे सामने आया नहीं जाता

'पुरनम' ग़म-ए-उल्फ़त में तुम आँसू न बहाओ
इस आग को पानी से बुझाया नहीं जाता