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दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था | शाही शायरी
dastan-e-shama thi ya qissa-e-parwana tha

ग़ज़ल

दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था

ब्रहमा नन्द जलीस

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दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था
अंजुमन में इश्क़ ही उन्वान हर अफ़्साना था

जुस्तजू-ए-दैर-ओ-का'बा से हुआ ज़ाहिर यही
मैं हक़ीक़त में ख़ुद अपनी ज़ात से बेगाना था

मेरी हस्ती थी ब-ज़ात-ए-ख़ुद मुकम्मल मय-कदा
मैं कभी शीशा कभी साग़र कभी पैमाना था

हाए वो अय्याम-ए-तिफ़्ली हाए वो अहद-ए-शबाब
ख़्वाब था जो कुछ कि देखा जो सुना अफ़्साना था

बद-गुमानी से हुआ अपने पराए का गुमाँ
वर्ना अपना था न दुनिया में कोई बेगाना था

चश्म-ए-बीना ही न थी तेरी वगरना ऐ कलीम
ज़र्रे ज़र्रे में ज़ुहूर-ए-जल्वा-ए-जानाना था

महफ़िल-ए-हस्ती में देखा है यही हम ने 'जलीस'
जिस को जितना होश था उतना ही वो दीवाना था