दस्त-ए-ज़रूरियात में बटता चला गया
मैं बे-पनाह शख़्स था घटता चला गया
पीछे हटा मैं रास्ता देने के वास्ते
फिर यूँ हुआ कि राह से हटता चला गया
उजलत थी इस क़दर कि मैं कुछ भी पढ़े बग़ैर
औराक़ ज़िंदगी के पलटता चला गया
जितनी ज़्यादा आगही बढ़ती गई मिरी
उतना दरून-ए-ज़ात सिमटता चला गया
कुछ धूप ज़िंदगी की भी बढ़ती चली गई
और कुछ ख़याल-ए-यार भी छटता चला गया
उजड़े हुए मकान में कल शब तिरा ख़याल
आसेब बन के मुझ से लिपटता चला गया
उस से तअल्लुक़ात बढ़ाने की चाह में
'फ़हमी' मैं अपने-आप से कटता चला गया
ग़ज़ल
दस्त-ए-ज़रूरियात में बटता चला गया
शौकत फ़हमी