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दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे | शाही शायरी
dast-e-pur-KHun ko kaf-e-dast-e-nigaran samjhe

ग़ज़ल

दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे

मजरूह सुल्तानपुरी

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दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे
क़त्ल-गह थी जिसे हम महफ़िल-ए-याराँ समझे

कुछ भी दामन में नहीं ख़ार-ए-मलामत के सिवा
ऐ जुनूँ हम भी किसे कू-ए-बहाराँ समझे

टूटे धागे ही से करते हैं रफ़ू चाक-ए-जिगर
कौन बेचारगी-ए-सीना-फ़िगाराँ समझे

हाँ वो बेदर्द तो बेगाना ही अच्छा यारो
जो न तौक़ीर-ए-ग़म-ए-दर्द-गुसाराँ समझे

ख़ंदा-ज़न उस पे रहे हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-जुनूँ
जो न कुछ मंज़िलत-ए-सिलसिला-दाराँ समझे

आज से हम ने भी ज़ख़्मों को तबस्सुम जाना
रज़्म को बज़्म-गह-ए-लाला-एज़ाराँ समझे

तोड़ दें हम जो न तलवार तो कहिए 'मजरूह'
तेग़-ज़न क्या हुनर-ए-ज़ख़्म-शिआराँ समझे